संपादकीय : कभी यहाँ गूँजती रही होंगी घर के अंदर घूँघट की आड़ से खिलखिलाहट और दरवाजे की ओट से सहमे, झिझकते और शर्माते चेहरे,नीम की छांव मे बिछी हुयी खटिया और उसपे लगी बाबा दादा की पंचायत, जिसमे पूरे गाँव की चर्चा कि किसकी बिटिया ब्याह लायक हो गयी या फिर किसका बेटा नौकरी के लिए परदेश गया।
आज सन्नाटा है इस चौक मे और बूढ़े नीम को इंतजार है उन खिलखिलाते हुये चेहरे का जो कभी इस दरवाजे से झाँकने कि कोशिश करते थे तो कभी उस दरवाजे,जीवंत पंचायते जिसमे हर इक घर, सांझा घर कि तरह शामिल होता था,क्या फिर कभी गुलजार होंगे वो दरवाजे जिन्हे छोड़ लोग परदेश जा बसे…
