आज से 30–35 साल पीछे लौटिए… उस समय के घरों में सबसे बड़ा आकर्षण टीवी नहीं, बल्कि वीसीआर/वीसीपी हुआ करता था। मोहल्ले में किसी एक घर में अगर वीसीआर आ जाए, तो समझिए शाम को पूरा पड़ोस वहीं इकट्ठा होता था। बच्चे स्कूल से आते ही पूछते – “आज उस मोहल्ले में वीसीआर आया हें” और बड़े भी अपने सारे काम निपटाकर उसी घर की बैठक में पसर जाते थे।
वीसीआर की आवाज़ गांव मोहल्ले मे सुनाई देती थी, वीडियो कैसेट का अंदर घुसना और फिल्म शुरू होते ही कमरे का अंधेरा – ये सब एक अलग ही जादू था। नए रिलीज़ की कैसेट मिल जाए तो मानो त्योहार जैसा माहौल बन जाता था। एक कैसेट पर कितनी ही बार देखा गया वही सीन, वही गाने… फिर भी हर बार वैसा ही रोमांच!
कई घरों में तो रातभर ‘वीसीआर पार्टी’ चलती थी – एक फिल्म खत्म नहीं, दूसरी शुरू। हीरो के डायलॉग होते ही तालियां, विलेन की एंट्री पर हूटिंग और गानों में बच्चे कमरे के बीचोंबीच नाचने लगते थे। उस दौर में स्क्रीन छोटी थी, पर खुशी बहुत बड़ी।
आज मनोरंजन उंगलियों पर है, पर वो सामूहिक मज़ा, वो इंतज़ार, वो भीड़ का उत्साह – दोबारा मिलना मुश्किल है।
सच में… वो भी क्या दौर था, जब वीसीआर चलता था और हम भागे चले जाते थे!






